ये बच्ची किसे सौंपी जाए….

एक बच्चा अपने भाग्य में क्या क्या लिखवाकर लाया है, इसका कुछ भी अंदाजा न उसे होता है, न उसे जन्म देने वालों को। जैसा झारखंड की इस नवजात शिशु के मामले में हो रहा है…

एक बच्ची का जन्म हुआ मार्च 2019 में। जिस वक्त उसका जन्म हुआ, उसकी नाबालिग_मां होम में रह रही थी। होम यानी घर से अलग एक घर, जो सरकार द्वारा संरक्षित होता है। बच्चे का पिता जेल में था। जन्म देने के बाद मां ने उसे बाल कल्याण समिति के सुपुर्द कर दिया कि उसका जीवन बच जाएगा।

इसके बाद वह अपने असली घर में अपने पिता के साथ रहने चली गई। इस लड़की की मां नहीं है। कुछ दिनों बाद हालात ऐसे बने कि वह अपने पिता के घर को छोड़कर उस लड़के के घर में रहने चली गई, जिससे उसे गर्भ ठहरा था। लड़के वालों ने भी संभवतः ये सोचकर उसे अपने यहां रख लिया कि इससे उनके लड़के को जेल से बाहर लाने में मदद मिलेगी और ऐसा हुआ भी।

लड़की के बयान पर हाल में वह लड़का जेल से बाहर आ गया। अब लड़के और लड़की, दोनों परिवारों में आपसी समझ बन गई और उनकी शादी की बात पर सहमति भी हो गई। दो परिवार, जो कल तक आमने-सामने थे, आज उनमें संबंध होने जा रहा है।

जिक्र बच्ची का हुआ तो ये भी फैसला हो गया कि बच्ची को वापिस घर ले आया जाए, लेकिन असल समस्या यहीं से शुरू हुई। दो माह इंतजार के बाद, बच्ची को एडॉप्शन के लिए लीगली फ्री किया जा चुका था। लीगली फ्री का मतलब होता है कि उक्त बच्चा एडॉप्शन के लिए फ्री है और कोई भी व्यक्ति भारतीय कानून के अऩुसार एडॉप्शन की प्रक्रिया पूरी कर उसे गोद ले सकता है। सेंट्रल एडॉप्शन रिसॉर्स एथॉरिटी (CARA) के पोर्टल पर वह रजिस्टर हो गई। यही नहीं, विदेश में एक दंपति ने उसे एडॉप्ट करने के लिए आवेदन दिया और एडॉप्शन की प्रक्रिया भी आरंभ हो गई। वे लोग आकर एक बार उससे मिल भी गए।

इधर, बदले घटनाक्रम में बाल कल्याण समिति, जिसे बैंच_ऑफ_मजिस्ट्रेट भी कहा जाता है, ने बच्ची को बॉयलॉजिकल पेरेंट्स के सुपुर्द करने का फैसला कर लिया। इसके अलावा परिवार की तरफ से डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के यहां पेटिशन भी दायर करवा दी गई, जिसे जज ने ये कहते हुए वापिस बाल कल्याण समिति को सौंप दिया कि ये उनके दायरे का मामला है, उन्हें ही निपटाना चाहिए।

सुनने में आया है कि कारा, यानि सेंट्रल एडॉप्शन रिसॉर्स एथॉरिटी ने ये कहकर धमकाने का प्रयास किया है कि बच्ची अब लीगली_फ्री है और एडॉप्शन की प्रक्रिया में आ चुकी है। इसलिए उसे उसके असल मां बाप को नहीं सौंपा जा सकता। अगर ऐसा हुआ तो बाल कल्याण समिति को भंग कर दिया जाएगा।

इस केस में तमाम घटनाक्रम को देखते हुए मेरा सवाल बस इतना है कि इस बच्ची का भविष्य कहां सुखद है, उसका सर्वांगीण विकास कहां ज्यादा अच्छा हो सकता है- जन्म देने वाले माता पिता के पास या पालक माता-पिता के पास।

ये सवाल उठाने की नौबत नहीं आती, यदि जिम्मेदारों के द्वारा समझदारी से इस उलझे मामले का हल निकाल लिया जाता। काश, कोई ऐसी एजेंसी या अधिकारी/काउंसलर होते, जो पैप्स यानि प्रोस्पेक्टिव एडॉप्टिव पेरेंट्स से इस पूरे मामले के बारे में डिटेल में बात करते, उन्हें सारी सिचुएशन समझाते, तब शायद वे खुद ही बच्ची की एडॉप्शन प्रक्रिया से अपने पैर पीछे खींच लेते। कारा भी छवि की चिंता से मुक्त होता और बच्ची वापिस अपने मां बाप के पास पहुंच जाती।

जो बच्चे को गोद लेने की प्रक्रिया में प्रवेश करता है, वह प्रक्रिया में जाने से पूर्व ही मन से बच्चे को अपना चुका होता है, ऐसा मुझे लगता है। ऐसे में वह उस बच्चे के हित, उसके भले, उसके भविष्य के बारे में अवश्य सोचता है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि बच्चे का अपने बॉयलॉजिकल पेरेंट्स से रिश्ता और उनका साथ, उसके लिए हर लिहाज से सर्वोत्तम हो सकता है, यदि उन्होंने उसे कोई नुकसान न पहुंचाया हो और न ही पहुंचाने की मंशा रखते हों। इसलिए ही कहा जाता है कि मां बाप से, खासकर मां से एक बच्चे का रिश्ता हर रिश्ते से 9 माह ज्यादा होता है।

यदि इस बच्ची को उसके परिजनों द्वारा असुरक्षित त्याग दिया जाता, उसके जीवन को खतरे में डाला होता, तो एक मां, एक पत्रकार और पालोना की फाउंडर होने के नाते मैं इसके विरोध में होती। न सिर्फ विरोध में होती, बल्कि उन्हें सजा दिलवाने के लिए भी प्रयासरत रहती, लेकिन इस केस में तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। मां ने हालातों के वशीभूत होकर बच्ची को सुरक्षित सरकार को सौंप दिया। वह तो खुद ही हालात की मारी थी, ऐसे में जैसे ही उसे थोड़ी गुंजाइश दिखी बच्ची को अपनाने की, वह उस दिशा में चल पड़ी, क्या इस नजरिए से इस मामले को देखना गलत है।

मां बाप व अन्य परिजनों को छोड़ दें और सिर्फ बच्ची को बारे में सोचें, तब भी यही लगता है कि बच्ची को अपने जन्मदाताओं के पास जाने का अवसर यदि मिल रहा है तो उसे उनके ही पास होना चाहिए। इसके अलावा, विदेश में बच्चों को गोद दिए जाने के बहुत पक्ष में नहीं हूं मैं। हमारे पास एडॉप्शन के बाद लंबी मॉनिटरिंग का कोई सिस्टम नहीं है। कुछ सालों तक इसका ध्यान रखा जाता है, लेकिन यह वह समय सीमा होती है, जब बच्चे बहुत छोटे होते हैं, जिन्हें बहुत आसानी से डराया धमकाया जा सकता है और प्रभाव में लेकर झूठ बोलने को भी बाध्य किया जा सकता है। इस दौरान उनके साथ क्या गुजर रहा है, वे ठीक से समझ तक नहीं पाते तो बताएंगे क्या।

एक परिचित ने, जो शिक्षा के क्षेत्र में ऊंची पोस्ट पर है और जिनकी बेटी विदेश में सॉईक्लोजिस्ट हैं, उन्होने बातचीत में बताया था कि वहां छोटे-छोटे बच्चे इतने ट्रॉमा से गुजरे होते हैं कि एक नार्मल इंसान उनकी पीड़ा सुन सुन कर पागल ही हो जाए। खासकर गोद लिए गए या सौतेले बच्चों के साथ सबसे अधिक क्रूरता बरती जाती है। उनका अधिकतर इस्तेमाल वे अपनी यौन कुंठाओं को शांत करने के लिए करते हैं, जो बच्चे के मासूम मन मस्तिष्क पर गहरा नकारात्मक असर डालती हैं।

झारखंड के इस मामले में कारा केवल अपनी इमेज के बारे में सोच रहा है कि यदि यह अडॉप्शन रुकता है तो इससे विदेश में उसकी छवि प्रभावित होगी, लेकिन वह बच्ची के बारे में नहीं सोच रहा है, जबकि उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी बच्चीके बारे में सोचने की है, न कि अपनी छवि या अन्य बातों के बारे में सोचने की। यदि मसला बच्ची से मिलने के लिए विदेश से आने-जाने के खर्चे से जुड़ा है तो इसके लिए भी बातचीत के जरिए बीच की कोई राह निकाली जा सकती है।

हम दिन रात ओहदेदारों को संवेदनशील होने का पाठ पढ़ाते रहते हैं, और जब कभी वह दिल से सोचकर कोई फैसला लेते हैं तो हम उनके खिलाफ खड़े हो जाते हैं, उन्हें धमकियां देने लगते हैं। क्या ये रवैया सही है। ऐसे कैसे हम अधिकारियों को संवेदनशील बना सकेंगे। क्या मैसेज दे रहे हैं हम अपने एक्शन से, कारा को इस पर भी सोचना चाहिए।

आप_क्या_सोचते_हैं_इस_बारे_में, अपनी राय से जरूर अवगत करवाएं। ये एक बच्चे की जिंदगी से जुड़ा मसला है। यह एक स्पेशल मामला है और भविष्य के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।

उस बच्ची को किसे सौंपा जाना चाहिए- उसके जन्मदाताओं को या फिर उसे गोद लेने के इच्छुक विदेश में बसे दंपति को…