इस बच्ची को भी झाड़ियों में छोड़ दिया गया था। छोड़ने वाले की मंशा तो शायद नुकसान पहुंचाने की रही होगी,लेकिन ऊपर वाले की मंशा कुछ और ही थी। इसलिए एक ट्रक चालक ने उसके रोने की आवाज सुनी, घटनास्थल पर पहुंचा, पुलिस को बताया और उसे बचा लिया। इस पूरे मामले में झारखंड बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्ष श्रीमती आरती कुजुर की भूमिका बेहद सराहनीय रही, जिनकी वजह से बच्ची को बचाया जा सका। घटना रांची के नामकुम इलाके में गुरुवार तड़के घटी।
समाजसेवी श्रीमती अनु पोद्दार ने पा-लो ना को घटना की जानकारी दी। इसके बारे में जब आयोग की अध्यक्ष आरती जी से बात की गई तो उस वक्त वह नामकुम पीएचसी में थीं और बच्ची को रिम्स लाने की तैयारी कर रहीं थीं। उन्होंने बताया कि बच्ची नामकुम थाने से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित पतरा टोली में सड़क किनारे झाड़ियों में मिली है। सूचना पर पहुंची 18 नंबर पीसीआर ने उसे विनायक अस्पताल में एडमिट करवाकर आरती जी को फोन किया, जिसके बाद वह विनायक अस्पताल पहुंची। लेकिन वहां किसी भी डॉक्टर को न देखकर हतप्रभ रह गईं। बच्ची का जीवन खतरे में था। वह ठंडी पड़ती जा रही थी।
बाल आयोग की अध्यक्ष बिना समय गंवाए उसे पीएचसी ले गईं और वहां उसे फर्स्ट एड दिलवाई। बच्ची कीं सांसें लौटी तो वे उसे एंबुलेंस में लेकर तुरंत रिम्स पहुंची। तब तक पा-लो ना टीम भी वहां पहुंच गई थी। बच्ची के पूरे चेहरे और शरीर पर चींटियों के काटने के निशान थे। घटना सुबह पांच-साढ़े पांच बजे घटित हुई थी।
इस पूरे मामले में आयोग की अध्यक्ष को बाल कल्याण समिति रांची की टीम से काफी नाराजगी रही, क्योंकि सूचना के काफी देर तक भी किसी ने बच्ची की सुध नहीं ली थी। दोपहर में जब बच्ची को बेहतर इलाज के लिए रिम्स से रानी चिल्ड्रेन अस्पताल शिफ्ट करने की बात हुई तो उस वक्त भी काफी विवाद हुआ। रिम्स बिना किसी अधिकारी की मौजूदगी के बच्ची को रेफर करने के लिए तैयार नहीं था और अधिकारी वहां कोई था नहीं। केवल संस्था करुणा एनएमओ के सदस्य थे, जिनकी कस्टडी में बच्ची को दिया गया था। करुणा एनएमओ, बाल कल्याण समिति और आयोग के बीच कोई समन्वय नहीं था।
तब पा-लो ना टीम को ही वह समन्वय स्थापित करना पड़ा। देर शाम आरती जी से बात हो पाई तो टीम ने बताया कि आयोग के पेपर बच्ची को रेफर करने के लिए जरूरी है। तब आरती जी पुनः रिम्स पहुंचीं और बच्ची को रानी चिल्ड्रेन अस्पताल शिफ्ट किया जा सका। तब तक बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष श्रीमती रूपा कुमारी और श्री कौशल किशोर भी वहां पहुंच गए थे। इस मामले में केस दर्ज करने की बाबत टीम ने कई बार नामकुम थाने से बातचीत की, लेकिन कोई केस दर्ज नहीं हुआ है। आयोग की अध्यक्ष के मुताबिक, वह भी थाने को केस दर्ज करने के निर्देश दे चुकी हैं।
टीम पा-लो ना ये महसूस करती है कि बच्चों से जुड़ी विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियां काम तो कर रही हैं, लेकिन उनमें समन्वय का बहुत अभाव है, जिसका नतीजा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है। जैसे इस मामले में भी यदि आरती जी को देर शाम भी पा-लो ना टीम द्वारा ये पता नहीं चलता कि आयोग से पेपर आए बिना बच्ची को रेफर नहीं किया जाएगा और वह वहां नहीं पहुंचती, तो उस दिन बच्ची को रेफर नहीं किया जा सकता था, जो बच्ची के लिए फैटल हो सकता था। यही नहीं, अगर वह स्वयं सुबह विनायक अस्पताल पहुंचकर वहां डॉक्टर की अनुपस्थिति को नोटिस नहीं करतीं और उसे तुरंत पीएचसी ले जाकर फर्स्ट एड नहीं दिलवातीं, तब भी बच्ची को बचाना नामुमकिन होता।
इसलिए जो भी लोग इस फील्ड में काम कर रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि इन बच्चों के लिए एक-एक पल की देरी जानलेवा साबित हो सकती है। एक बार कैजुअल्टी होने के बाद कोई भी बहाना या वजह उनका जीवन वापिस नहीं ला सकता। इसलिए बेहतर है कि हम बेहतर तालमेल स्थापित कर इन मासूमों को बचाने में जुट जाएँ ताकि इनका जीवन भी बच सके और हमारे प्रयास भी सार्थक हों।
टीम पा-लो ना उस अनजान मददगार को नहीं जानती, जिसने बच्ची को झाड़ियों से निकाला। बहुत प्रयास करने के बावजूद उनके बारे में कुछ पता नहीं चला। लेकिन टीम उन अनजान मददगार का आभार व्यक्त करती है, जिन्होंने खत्म होते मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित किया और साथ ही आरती कुजुर जी का भी, जो अधिकारी से पहले एक महिला हैं, एक मां है। अगर बच्चों को बचाना है तो हर व्यक्ति, हर अधिकारी को इसी तरह संवेदनशील होना होगा और कार्यशैली में गति भी लानी होगी।
23 अगस्त 2018 रांची, झारखंड (F)