एक निश्चित मौत का इंतजार यूं भी आसान नहीं होता। लेकिन यहां हम जिनकी मौत की बात कर रहे हैं, उनके पास गिने चुने लम्हे होते हैं। उनका बचना भी किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं होता। मगर उनका मौत तक पहुंचना जिंदगी का रिसना है। एक ऐसी जिंदगी, जो बूंद बूंद रिसती है और लम्हे लम्हे मारती है। ये हैं- एबॉर्शन सर्वाईवर या बोर्न अलाइव बेबी।
बोर्न अलाइव एबॉर्शन सर्वाईवर्स…
इनके बारे में यदि आप नहीं जानते हैं तो बता दूं कि ये वे बच्चे होते हैं, जो एबॉर्शन या मिसकैरिएज के बाद भी बच जाते हैं। इनकी उम्र कुछ घंटों से लेकर दिनों तक भी हो सकती है। विदेशों में तो ऐसे भी कुछ उदाहरण मिलते हैं, जहां एबॉर्शन सर्वाईवर्स ने एक लंबी जिंदगी जी और अपनी उन मांओं को भी खोज निकाला, जिनकी वजह से उन पर एबॉर्शन सरवाईवर का ठप्पा लग गया उम्रभर के लिए। इनमें से कुछ एबॉर्शन के खिलाफ शुरू हुए अभियानों में पोस्टर गर्ल की भूमिका में भी नजर आईं।
एक बार फिर इन एबॉर्शन सर्वाईवर बच्चों की याद दिलाई हरियाणा के सोनीपत में 25 मई 2020 को घटी एक घटना ने। ये एक ऐसा मुद्दा है, जिसके बारे में पहले सुना व पढ़ा तो था, लेकिन भारत में उसके अस्तित्व की पुष्टि नहीं हुई थी कभी। एबॉर्शन सरवाईवर बेबी के इस मुद्दे को प्रमाण मिला हरियाणा की इस घटना से। एक तरफ जहां इस घटना ने एक बहुत ही गंभीर मसले पर प्रमाणों को उपलब्ध करवाया, वहीं उसने न केवल मेडिकल प्रोफेशन, बल्कि इंसानियत के ऊपर भी बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
हरियाणा के सोनीपत में 25 मई को एक महिला ने सुबह सात-साढ़े सात बजे दो बच्चों को जन्म दिया। इनमें एक लड़का था और एक लड़की। लड़का स्टिलबोर्न था, यानी मृत जन्मा था। लेकिन बच्ची की सांसें चल रहीं थीं। उस बच्ची को उसी हालत में, खून से लथपथ, बिना साफ किए, एक पॉलीथिन में डालकर प्लास्टिक के एक छोटे टब में डाल दिया गया।
वह बच्ची उसी हालत में 16 घंटे से भी अधिक समय तक सांस लेती रही, कराहती रही, पुकारती रही। उसे एक कमरे में बंद कर दिया गया था, ताकि किसी तक उसकी पुकार नहीं पहुंचे। लेकिन अस्पताल के ही किसी स्टाफ को उस मासूम पर दया आ गई और उसने रवि दहिया नामक युवक को बच्ची की स्थिति के बारे में बताया। उसने ये भी रिक्वेस्ट की कि वह तो सामने नहीं आ सकता, लेकिन किसी भी तरह इस मामले को उठाया जाए, ताकि बच्ची को मदद मिल सके।
मामला गंभीर था और अजीब भी। विश्वास कैसे हो, इसलिए रवि ने उनसे बच्ची का कोई फोटो या वीडियो क्लिप भेजने को कहा। जब वीडियो उन्होंने देखा तो बच्ची की स्थिति देख दंग रह गए। कुछ ही मिनटों में वे सेक्टर 15 थाने में थे। उन्होंने वहां पुलिस को बच्ची का विजुअल दिखाया और उन्हें लेकर अस्पताल पहुंचे।
कमरे में बंद मिली मासूम बच्ची
मिली जानकारी के आधार पर उस कमरे को खुलवाया गया, जहां बच्ची को टब में डालकर बंद किया गया था। सूचना सही थी। बच्ची रिस रिस कर मर रही थी। कभी भी मौत उसे दबोच सकती थी। उसकी स्थिति ने सभी को द्रवित कर दिया, लेकिन उस डॉक्टर को नहीं, जिसकी वजह से वह वहां टब में पड़ी पल पल मौत की तरफ बढ़ रही थी।
गलती पकड़े जाने पर उग्र हो गई डॉक्टर
अस्पताल में डॉक्टर से रवि की काफी बहस हुई, जो वीडियो क्लीप में भी साफ सुनी जा सकती है। बजाय अपनी गलती स्वीकारने के, डॉक्टर रवि को अस्पताल से बाहर निकालने के लिए कहती हैं। बच्ची के जिंदा होने पर मैडिकल ट्रीटमेंट देने की गुजारिश करने पर वह वैरिफाई करने को कहती हैं। और जब खुद को घिरता देखती हैं तो ये कहकर पल्ला झाड़ लेती हैं कि मुझे नहीं पता, पेरेंट्स से पूछो न, ये मेरा काम थोड़े ही है…
वह यह भी कहती हैं कि 400 ग्राम की बेबी को इन (रवि) को सौंप दो, ये क्या करते हैं।
रवि को बाहर निकलवाया
डॉक्टर रवि को बाहर निकलवा देती हैं और पुलिस से बात करती हैं। रवि अस्पताल के बाहर खड़े काफी देर तक इंतजार करते हैं। बाहर भी बच्ची की घुटी घुटी आवाज सुनाई देती है तो फिर वापिस अस्पताल के अंदर जाते हैं। तब एएसआई डॉक्टर के हवाले से बताते हैं कि बच्ची की मां पेटदर्द की शिकायत पर अस्पताल पहुंची थी और जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था। जिनमें से लड़का मृत जन्मा और बच्ची के मरने का इंतजार किया जा रहा है, क्योंकि वह मात्र 400 ग्राम की है और उसे बचाया नहीं जा सकता।
इन सवालों का जवाब नहीं उनके पास
इन सवालों का जवाब न पुलिस के पास था और न ही डॉक्टर के पास कि
एक आदर्श हैं मध्य प्रदेश की डॉ. वैशाली निगम
इन्हीं सब सवालों की तलाश मध्यप्रदेश की डॉ. वैशाली निगम तक ले गई। देवास की डॉ वैशाली ने एक ऐसी बच्ची को बचाया था, जिसे उसके माता-पिता ने चलती बाईक से खाई में उछाल दिया था। जंगल में वह बच्ची 24 घंटे से भी ज्यादा समय तक बारिश और धूप को झेलती रही थी। उसके सिर में कीड़ों ने छेद कर दिया था। और उसके बचने की किसी को जरा भी उम्मीद नहीं थी।
डॉ. वैशाली ने बताया कि यह बहुत ही अमानवीय है कि किसी बच्चे को बालटी या टब में डाल दिया जाए। एक डॉक्टर से भी पहले एक इंसान होना जरूरी है। हमारे सामने कभी कभी ऐसे मामले आते हैं, जब मिसकैरिएज की स्थिति में अर्द्धविकसित बच्चे जन्म लेते हैं, जिनका सर्वाइवल रेट बहुत ही कम होता है। हमें पता होता है कि यह बच्चा नहीं बचेगा, लेकिन हम उसे टब या बालटी में नहीं डालते, बल्कि लाईफ सपोर्टिंग सिस्टम पर रखते हैं, ताकि जितनी भी सांसें भगवान ने उस मासूम को दी हैं, वह डिग्निटी से उन्हें ले।
अब तो काफी सुविधाएं हैं, लेकिन जब ये सुविधाएं नहीं थीं, या बेड कम पड़ जाते थे, तब भी मोटे गत्ते वाले कार्टन में रूई की कई तहें लगाकर ऐसे बच्चे को उसमें लिटाकर उसे सपोर्ट दिया जाता था, ताकि उसे बहुत परेशानी नहीं हो। हमने 500 ग्राम वाले बच्चों को भी बचाने का प्रयास किया है। अब तो देश के कई हिस्सों में ऐसी घटनाएं हुई हैं, जहां बहुत ही कम वजन वाले बच्चों को लाईफ सपोर्टिंग सिस्टम और मेडिकल स्टाफ के डेडिकेशन की वजह से बचा लिया गया।
हो सकता है कि यह बेबी नहीं बचती, लेकिन उसके साथ जो व्यवहार किया गया, वह किसी भी तर्क या कंडीशन के आधार पर स्वीकार नहीं किया जा सकता।
बस इंसान बन जाएँ तो भी बहुत है
डॉ. वैशाली से जब ऐसे एबॉर्शन सर्वाईवर बच्चों के संबंध में मैडिकल गाईडलाइंस की बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें इसके मेडिकोलीगल एस्पेक्ट्स के बारे में नहीं पता है। पर वह कहती हैं कि हम कुछ और बनें न बनें, बस इंसान बन जाएं तो बहुत है। हमें जिंदगी को इज्जत देनी चाहिए। और यदि किसी परिस्थितिवश हम ऐसा भी करने में सक्षम न हों तो कम से कम पेशेंट को कोई नुकसान तो न पहुंचाएं।
हमारे देश में एबॉर्शन सर्वाईवर बेबीज के बारे ज्यादा कुछ लिखा-पढ़ा नहीं गया है। लेकिन विदेशों में इसे लेकर अभियान चलते रहे हैं।
अमेरिका में Melissa Ohden व Gianna Jessen एंटी एबॉर्शन एक्टिविज्म के दो सबसे बड़े चेहरे हैं। Melissa Ohden का जन्म अमेरिका के स्टेट आईवा में 1977 में हुआ था। Melissa Ohden की 19 वर्षीय मां का एबॉर्शन सेलाईन सॉल्यूशन के द्वारा करवाया गया था।
आपको बता दे कि सैलाइन एबॉर्शन में गर्भ में इंजेक्शन की मदद से एक लिक्विड डाला जाता है, जो बच्चे को मारता है. इस प्रक्रिया में बच्चे के फेफड़े और खाल तक जल जाती है और वो मर जाता है। ऐसे में मां एक मृत बच्चे को जन्म देती है।
लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि वह आधा जला बच्चा जिंदा रह जाता है और फिर उसे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, जैसे मैलिसा को छोड़ दिया गया था। आठ माह के गर्भ का जब एबॉर्शन करवाया गया, मेलिसा का वजन तीन पौंड यानी 1.3 किलो से कम था। उन्हें मेडिकल वेस्ट के साथ ही रख दिया गया था। कोई भी इसके खिलाफ नहीं बोल सकता था क्योंकि मेलिसा की नानी स्वयं एक प्रतिष्ठित नर्स थी और उन्होंने ही दबाव देकर अपनी बेटी के इस एबॉर्शन को अंजाम दिया था।
मगर मेलिसा को जिंदा रहना था और वह बच गईं। एक नर्स ने उनकी महीन आवाज को सुना और उनके शरीर में हो रही हरकतों को नोटिस किया। उन्हें तुरंत ही इंटेंसिव केयर यूनिट में ले जाया गया। और सभी साजिशों को हराते हुए नियति ने उन्हें जिता दिया। उस समय डॉक्टर द्वारा उनके संबंध में जताई गई सभी आशंकाएं भी निर्मूल साबित हुईं कि मेलिसा को सेलाइन सॉल्यूशन की वजह से कोई न कोई गंभीर अपंगता शिकार बना लेगी।
बाद में एक परिवार ने उन्हें गोद ले लिया। वहीं अपनी बहन से बहस के दौरान मेलिसा को इस सच का पता चला कि वह एक एबॉर्शन सर्वाइवर बेबी हैं। इस रहस्योद्घाटन ने उनके मन पर बहुत खराब असर डाला। वह कई सालों तक इससे जूझती रहीं और अंत में निर्णय लिया कि वह अपनी मां को ढूंढकर रहेंगी, जिनकी वजह से उनपर एबॉर्शन सर्वाइवर बेबी की मुहर लगी।
लेकिन यह इतना आसान नहीं था। अभी और भी शॉक लगने बाकी थी। लगभग दस साल के बाद मेलिसा को अपनी मां का पता चल गया। मेलिसा अपनी उस मां के सामने जीती जागती खड़ी थीं, जो तीस साल तक यही समझती रही कि उनका बच्चा मर चुका है। यहां तक कि उनकी मां को ये भी नहीं मालूम था कि उनके गर्भ में पल रहा शिशु लड़का था या लड़की। अपनी मां से ही मेलिसा को ये भी पता चला कि वह एबॉर्शन नहीं करवाना चाहती थी, लेकिन मेलिसा की नानी के दबाव में उनकी एक न चली।
मेलिसा ने अपनी मां की आंखों में पश्चाताप देखा और उन्हें माफ कर दिया। वह अपने आपको उन चंद खुशकिस्मत लोगों में से समझती हैं, जो एबॉर्शन के बावजूद जीवित बचे और जिनके पास गोद लेने वाले परिवार के अलावा अब जन्म देने वाला परिवार भी है।
मगर जेसेन के साथ ऐसा नहीं हुआ। वह कभी अपनी मां को माफ नहीं कर पाईं। जेसन का जन्म भी 1977 में ही हुआ था। लॉस एंजिल्स में 17 साल की एक टीनएजर युवती ने जेसेन को एबॉर्ट करने की कोशिश की थी। उस वक्त गर्भ का 30वां (साढ़े सात महीने) हफ्ता चल रहा था। जन्म के समय जेसन का वजन 2.5 पाउंड (1.1 किलो) था और वह सेरेब्रल पल्सी से पीड़ित थीं। जेसेन इसे एबॉर्शन का गिफ्ट बताती हैं।
एबॉर्शन को लेकर उनके मन में बहुत पीड़ा है और इसीलिए उन्होंने 1991 में इसके लिए आवाज उठाने का निर्णय किया। उनके शब्दों में, एबॉर्शन को एक पॉलिटिकल डिसिजन या स्त्री का अधिकार समझना बहुत आसान है, लेकिन मैं कोई अधिकार नहीं हूं, मैं इंसान हूं। जेसेन ने अपनी मां को माफ तो कर दिया, लेकिन उनके साथ किसी भी तरह का रिश्ता रखने में उनकी कोई रुचि नहीं है। यह उनके दर्द को बढ़ा देता है।
Claire Culwell (अमेरिका) और Josiah Presley (साउथ कोरियन) भी वे लोग हैं, जो एबॉर्शन के बावजूद जीवित जन्मे और जिन्होंने लंबी जिंदगी भी जी। आमतौर पर इस तरह जन्मे बच्चों की जिंदगी मात्र डेढ़ से तीन घंटे ही होती है। लेकिन कोई बच्चा कुछ ज्यादा घंटों तक भी जीवित रहता है।
सोनीपत में बच्ची का जो केस सामने आया है, उसमें यह कहना बहुत ही मुश्किल है कि वह एबॉर्शन सर्वाईवर है या मिसकैरिएज की शिकार। हमारे यहां एक डॉक्टर व एबॉर्शन के इच्छुक माता पिता के बीच बहुत से अनलिखे करार हो जाते हैं, जो एक बच्चे, विशेषकर बच्ची की जिंदगी के खिलाफ होते हैं। लेकिन यह तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस बच्ची को भी उन्हीं हालात से गुजरना पड़ा, जिनसे एबॉर्शन सर्वाईवर बेबीज गुजरते हैं।
इसके अलावा एक और बात है, जो इसके एबॉर्शन सर्वाईवर होने की तरफ इशारा करती है, और वो ये कि आमतौर पर जो बच्चे वांटेड प्रेगनेंसी का परिणाम होते हैं, यानी माता-पिता जिन बच्चों के आने का बेसब्री से इंतजार करते हैं, उन बच्चों की बुरी से बुरी कंडीशन में भी जन्म लेने पर मरने के इंतजार में किसी डस्टबिन या टब में नहीं डाल देते। उनके कंसल्टिंग डॉक्टर भी ऐसा करने का दुस्साहस नहीं कर पाते, बल्कि नियोनेटल केयर यूनिट में एडमिट कर उन्हें बचाने का भरसक प्रयास किया जाता है। लेकिन इस मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं किया गया।
बल्कि रवि दहिया के द्वारा इस बच्ची के इलाज के लिए आवाज उठाए जाने पर उन्हें अपमानित किया गया। उन्हें बार बार झूठ बोला गया। रात 11 बजे से लेकर अगले दिन शाम तक रवि बार बार कभी पुलिस व कभी सिविल अस्पताल से अपडेट लेने के लिए संघर्ष करते रहे। उन्हें ये भी गलत कहा गया कि मध्य रात्रि के बाद बच्ची को सरकारी अस्पताल में भेज दिया गया था। लेकिन जब अगले दिन सुबह-सुबह रवि उस बच्ची को देखने सिविल अस्पताल पहुंचे, तो उन्हें वहां बच्ची नजर नहीं आई। बाद में उनके प्रयासों से बच्ची सिविल अस्पताल पहुंची जरूर, लेकिन 24 घंटे से अधिक समय तक झूठ, नफरत, स्वार्थ, अमानवीयता को झेलते-झेलते वह इतना थक चुकी थी कि शाम को उसकी मौत हो गई।
क्या इस मौत को किसी भी तरीके से जस्टिफाईड किया जा सकता?
इसलिए समाज व मेडिकल प्रोफेशनल्स के सामने एक आदर्श स्थिति बनाने व कड़ा संदेश देने के लिए जरूरी है कि इस मामले की सघन जांच हो। जो लोग भी इसमें दोषी पाए जाते हैं, उनके खिलाफ सख्त कदम उठाया जाए। दोषी डॉक्टर की मेडिकल डिग्री उनसे वापिस ली जाए और उनके सभी अस्पतालों को बंद कर दिया जाए। ये कदम उठाया जाना इसलिए जरूरी है कि उन्होंने न तो अपने डॉक्टर होने की लाज ही रखी, न ही इंसानियत के तकाजे पर ही खरी उतरीं….